जीना कितना मुश्किल यहाँ
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जीना कितना मुश्किल यहाँ ,
मरना कितना आसान ।
पग-पग पर मौत का पहरा ,
बच कर चल मेरी जान ।
हवा बड़ी जहरीली यहाँ ,
हो गई है विष समान ।
जीने न देती हवा यहाँ ,
हर लेती सबके प्राण ।
पानी भी न अब शुद्ध यहाँ ,
ये भी करते नुकसान ।
पानी से ना बुझती क्षुधा ,
बुझ जाते इससे प्राण ,
आबोहवा में रोग यहाँ ,
जाती इससे अब जान ।
जाएँ तो अब जाएँ कहाँ ,
सुरक्षित ना कोई स्थान ।
बंजर होती जमीन यहाँ ,
भूजल का घटता मान ।
गर्मी अब सुखाती नदियाँ ,
मगर बारिश दे उफान।
बढ़ते ताप से क्षुब्ध धरा ,
है बर्फ भी हलाकान ।
समुद्र का जल बढ़ता यहाँ ,
है जग यहाँ परेशान ।
जीव-जंतु अब घटते यहाँ ,
जंगल होते वीरान ।
पेड़-झाड़ अब कटते यहाँ ,
वनभूमि हुए शमशान ।
अनियमित अब होती वर्षा ,
व नियमित हुए तूफान ।
भीषण पड़ती गरमी यहाँ ,
ठंड रचती कीर्तिमान ।
सुविधा-भोगी मनुष्य यहाँ ,
पूरे करते अरमान ।
नाराज़ होकर प्रकृति यहाँ ,
होती अब बेईमान ।
दिलीप कुमार
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