Tuesday, 7 April 2020

गजल - क्या से क्या हो गया

               



     क्या से क्या हो गया
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क्या से क्या हो गया है मंज़र अपने शहर का।
बेखौफ का बसेरा घर हो गया आज डर का।

खिड़की दरवाजे कभी न हमें यूँ सुहाते थे।
पर आज ये बने है आसरा सबकी नजर का।

कल तलक थी चलती सरपट गाड़ी जिंदगी की।
पर थमा हुआ सा लगता पहिया आज सफर का।

शहर का शहर सन्नाटे से सन्न  हो गया है।
चुप्पी सुना रही है नगमा मौत के कहर का।

कल तलक नजर आते थे हम सब यहाँ सिकन्दर।
आज शिकस्त से लथपथ दिखते योद्धा समर का।

डूबती हुई नज़र आती कश्ती अब हमारी।
शायद पतवार है टूटा दोष न है लहर का।

डरा-डरा सा लगता आज हर कोई यहाँ है।                 
असल में यही तो असर है कुदरत के कहर का।

कितना अच्छा हो गर ये कहर हमें सीखा दे।
यहाँ नया तरीका जिंदगी की गुजर-बसर का।

                                      दिलीप कुमार







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