Tuesday, 19 May 2020

कविता - धू-धू कर जल रही धरा





धू-धू कर जल रही धरा


धू-धू कर जल रही धरा
उसमें झुलसते हम सभी,
ऐसी घड़ी हमने यहाँ                                                 
ना देखी ना सुनी कभी !

ऐसा लगता है वसुधा
हमसे अब तो रूठ गई,
रिश्तों की थी डोर यहाँ
लगता अब तो टूट गई !

ऐसा लगता भू माता
अब ना रही ममता मयी,
इसीलिए शायद न यहाँ
पहले वाली रही खुशी !

ऐसा लगता वसुंधरा
हमसे हो गई है दुखी,                                                  
इसीलिए सर्वत्र यहाँ
दुखों की वर्षा हो रही !

ऐसा लगे अब भू-धरा
अब तो हमको रुला रही,
और मानवता को यहाँ
पीड़ा देकर  डरा रही !

ऐसा लगे पृथ्वी यहाँ
जैसे आग बरसा रही,
जीना दूभर यहाँ हुआ
विपदा आती घड़ी घड़ी !

ऐसा लगे धरणी यहाँ
हमसे  बदला चुका रही,
हमारे कर्मों की सजा
हमको अब वो सुना रही !

हर तरफ छायी निराशा
जीने की अब आस नहीं,
आखिर हम सब रहें कहाँ
सुरक्षित न अब रही भूमि !

ऐसा लगे धरती यहाँ
मौत के शूल उगा रही,
जीवन में अब छाँव कहाँ
धूप में जलती जिंदगी !

आओ करें हम प्रार्थना
शीश नवाकर यहीं अभी,
हे धरती ! हे वसुंधरा !
क्षमा करो अब भूल सभी !

 करुणा करो , हे भू धरा !
हममें समझ बिल्कुल नहीं,
 हे भू माता ! करो क्षमा
तू  है बड़ी करुणामयी !

हे वसुधा ! तुम करो दया
यही है तुमसे बन्दगी,
गुस्सा छोड़ के , हे धरा !
खुशी से भर दे जिंदगी !

हे धरणी ! ममता बरसा
पहले जैसे ओर सभी,
और ना अब हमको सता
सहने की ना शक्ति  रही !

हे भू! हम करते वादा
हम न करेंगे भूल कभी,
हम रखेंगे ख्याल तेरा
शपथ उठाते आज यही !

 तुमने उड़ेली नित कृपा
आगे भी उम्मीद लगी,
देख हमारी दीन दशा
अब तो रहम कर, हे मही !


               दिलीप कुमार




























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