धू-धू कर जल रही धरा
धू-धू कर जल रही धरा
उसमें झुलसते हम सभी,
ऐसी घड़ी हमने यहाँ
ना देखी ना सुनी कभी !
ऐसा लगता है वसुधा
हमसे अब तो रूठ गई,
रिश्तों की थी डोर यहाँ
लगता अब तो टूट गई !
ऐसा लगता भू माता
अब ना रही ममता मयी,
इसीलिए शायद न यहाँ
पहले वाली रही खुशी !
ऐसा लगता वसुंधरा
हमसे हो गई है दुखी,
इसीलिए सर्वत्र यहाँ
दुखों की वर्षा हो रही !
ऐसा लगे अब भू-धरा
अब तो हमको रुला रही,
और मानवता को यहाँ
पीड़ा देकर डरा रही !
ऐसा लगे पृथ्वी यहाँ
जैसे आग बरसा रही,
जीना दूभर यहाँ हुआ
विपदा आती घड़ी घड़ी !
ऐसा लगे धरणी यहाँ
हमसे बदला चुका रही,
हमारे कर्मों की सजा
हमको अब वो सुना रही !
हर तरफ छायी निराशा
जीने की अब आस नहीं,
आखिर हम सब रहें कहाँ
सुरक्षित न अब रही भूमि !
ऐसा लगे धरती यहाँ
मौत के शूल उगा रही,
जीवन में अब छाँव कहाँ
धूप में जलती जिंदगी !
आओ करें हम प्रार्थना
शीश नवाकर यहीं अभी,
हे धरती ! हे वसुंधरा !
क्षमा करो अब भूल सभी !
करुणा करो , हे भू धरा !
हममें समझ बिल्कुल नहीं,
हे भू माता ! करो क्षमा
तू है बड़ी करुणामयी !
हे वसुधा ! तुम करो दया
यही है तुमसे बन्दगी,
गुस्सा छोड़ के , हे धरा !
खुशी से भर दे जिंदगी !
हे धरणी ! ममता बरसा
पहले जैसे ओर सभी,
और ना अब हमको सता
सहने की ना शक्ति रही !
हे भू! हम करते वादा
हम न करेंगे भूल कभी,
हम रखेंगे ख्याल तेरा
शपथ उठाते आज यही !
तुमने उड़ेली नित कृपा
आगे भी उम्मीद लगी,
देख हमारी दीन दशा
अब तो रहम कर, हे मही !
दिलीप कुमार

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