Wednesday, 1 April 2020

कविता- विकट घड़ी

  विकट घड़ी     
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 है विकट घड़ी
 सामने खड़ी,
 नजरें जिसकी
 मनुज पर पड़ी।

 इरादे अटल
 लगता अविचल,
 हर कोशिश अब
 हो रही विफल।

ज्ञान है लगा
व विज्ञान जगा,
चला तर्क भी
पर वह न भगा।

अचरज में सब
जपते सब रब,
रो रहे लोग
देख दिन अजब।

मचाता समय
अब यहाँ प्रलय,
बली से बली
खाता है भय।

दूर न भगता
डर है जगता,
दे रहे मौत
यम सा लगता।

मिलकर हो प्रण
अभी इसी क्षण,
बदलो कौशल
जितना यदि रण।

है बस एक हल
प्रकृति संग चल,
गर न देखना
समय अब विकल।

प्रकृृति के संग
न कर अब जंग,
आगे ना जा
चल संग- संग।

प्रकृति से प्यार
कर यहाँ यार,
गर अब करना
सुखी संसार !

           दिलीप कुमार

2 comments:

  1. बहुत सुन्दर भाई

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    1. सादर साधुवाद सराहना हेतु । 🙏

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